History of Meghwal - मेघवंशी का इतिहास
मेघवंशी समुदायों के लोग आपस में एक दूसरे से पूछते रहे हैं कि भाई, हमारा इतिहास क्या है? उत्तर मिलता है कि - पता नहीं.
इतिहास तो बाद की बात है, पहले कुछ ऐतिहासिक सवाल हैं -
मेघों का इतिहास है तो उन्होंने युद्ध भी लड़ा होगा. इसके पर्याप्त सबूत हैं कि मेघवंशी या मेघ-भगत योद्धा रहे हैं हालाँकि उनके अधिकतर इतिहास का लोप कर दिया गया है. नवल वियोगी जैसे इतिहासकारों ने नए तथ्यों के साथ इतिहास को फिर से लिखा है और बताया है कि इस देश के प्राचीन शासक नागवंशी थे. आपने मेघ ऋषि के बारे में सुना होगा उसे वेदों में 'अहि' यानि 'नाग' कहा गया है.
''मेघवंश'' एक मानव समूह है जो उस कोलारियन ग्रुप से संबंधित है जो मध्य एशिया से ईरान के रास्ते इस क्षेत्र में आया था. इसका रंग गेहुँआ (wheetish) है.
मेघवंशी सत्ता में रहे हैं जिसे 'अंधकार युग' (dark period या dark ages) कहा जाता था. लेकिन के.पी. जायसवाल, नवल वियोगी, एस.एन. रॉय-शास्त्री (जिन्होंने मेघ राजाओं के सिक्कों और शिलालेखों का अध्ययन किया) और आर.बी. लाथम ऐसे इतिहासकार हैं जिनकी खोज ने उस समय का इतिहास खोजा. आज इतिहास में कोई 'अंधकार काल' नहीं है.
मेघवंशी रेस ने मेडिटेरेनियन साम्राज्य की स्थापना की थी जो सतलुज और झेलम तक फैला था. पर्शियन राज्य की स्थापना के बाद यह समाप्त हो गया और मेदियन साम्राज्य के लोग बिखर गए होंगे इसका अनुमान सहज लगाया जा सकता है.
आर्यों के आने से पहले सप्तसिंधु क्षेत्र में बसे लोग 'मेघ ऋषि' जिसे 'वृत्र' भी कहा जाता है के अनुगामी थे या उसकी प्रजा थे. उसका उल्लेख वेदों में आता है. काबुल से लेकर दक्षिण में नर्बदा नदी तक उसका आधिपत्य (Suzerainty) था. सप्तसिंधु का अर्थ है सात दरिया यानि सिंध, सतलुज, ब्यास, रावि, चिनाब, झेलम और यमुना. आर्यों का आगमन ईसा से लगभग 1500 वर्ष पूर्व माना जाता है और मेदियन साम्राज्य ईसा से 600 वर्ष पूर्व अस्तित्व में था. इस दौरान आर्यों के बड़ी संख्या में आने की शुरूआत हुई और इस क्षेत्र में मेघवंशियों के साथ लगभग 500 वर्ष तक चले संघर्ष के बाद आर्य जीत गए. यह लड़ाई मुख्यतः दरियाओं के पानी और उपजाऊ जमीन के लिए लड़ी गई.
आर.एल. गोत्रा जी ने लिखा है कि 'वैदिक साहित्य के अनुसार मेघ या वृत्र से जुड़े लगभग 8 लाख मेघों की हत्या की गई थी'. धीरे-धीरे आर्यों का वर्चस्व स्थापित होता चला गया जो बुद्ध के बाद पुष्यमित्र शुंग के द्वारा असंख्य बौधों की हत्या तक चला जिसमें बौधधर्म के मेघवंशी प्रचारक भी बड़ी संख्या में शामिल थे. कालांतर में ब्राह्मणीकल व्यवस्था स्थापित हुई, मनुस्मृति जैसा धार्मिक-राजनीतिक संविधान पुष्यमित्र ने स्मृति भार्गव से लिखवाया. जात-पात निर्धारित हुई और मेघवंशियों का बुरा समय शुरू हुआ.
मेघों का प्राचीन इतिहास भारत में कम और पुराने पड़ोसी देशों के इतिहास में अधिक है. यह उनके लिए दिशा संकेत है जो खोजी हैं.
ख़ैर, बहुत आगे चल कर आर्य ब्राह्मणों की बनाई हुई जातिप्रथा में शामिल होने से मेघवंश से कई जातियाँ निकलीं. पंजाब और जम्मू-कश्मीर के मेघ-भगत एक जाति है तथापि मेघवंश से राजस्थान के मेघवाल भी निकले हैं और गुजरात के मेघवार भी. कई अन्य जातियाँ भी मेघवंश से निकली हैं जिन्हें आज हम पहचाने से इंकार कर देते हैं लेकिन पहचानने की कोशिशें तेज़ हो रही है.
आपके गोत्र में आपका थोडा-सा इतिहास रहता है और आपका सामाजिक स्तर भी. गोत्र से उन सारी बातों का प्रचार हो जाता है जो याद दिलाती रहती हैं कि कौन सा वर्ण सबसे ऊँचा है या सबसे ऊँचे से कितना नीचे है.
लोगों को आपने जन्म-मरण, विवाह के संस्कारों के समय अपना गोत्र छिपाते हुए देखा होगा. वे केवल ऋषि गोत्र से काम चलाना चाहते हैं. वे जानते हैं कि गोत्र बता कर वे अपनी जाति और अपने सामाजिक स्तर की घोषणा खुद करते हैं जो उन्हें अच्छा नहीं लगता. गोत्र की परंपरा का बोलबाला देख कर मेघों ने भी ख़ुद को ब्राह्मणवादी व्यवस्था में मिलाते हुए इस गोत्र व्यवस्था को अपनाया. गोत्र-परंपरा ब्राह्मणी परंपरा से ली गई प्रथा है.
आमतौर पर ब्राह्मण परंपरा में गोत्र को रक्त-परंपरा (अपना ख़ून) और वंश के अर्थ में लिया जाता है. इसलिए ब्राह्मण हमेशा ब्राह्मण ही रहेगा. मेघवंशी मेघवंशी ही रहेगा. वह आर्य या ब्राह्मण नहीं बन सकता. एक अन्य परंपरा के अनुसार मेघों की पहचान वशिष्टी के नाम से ही की जाती थी. इसलिए सारे भारत में मेघ वाशिष्ठी, वशिष्टा या वासिका नाम से जाने गए. फिर कई भू-भागों में यह वशिष्टा नाम धीरे-धीरे लुप्तप्राय हो गया.
आदिकाल से ही मेघ लोग अपने मूलपुरुष के रूप में मेघ नामधारी महापुरुष को मानते आए हैं. यह मूल पुरुष ही उनका गोत्रकर्ता (वंशकर्ता) है. इसे सभी मेघवंशी मानते हैं.
मेघों का धर्म
क्या मेघों का अपना कोई पुराना धर्म है? इतिहास खुली नज़र से इसका भी रिकार्ड देखता है. मेघ समुदाय में मेघों के धर्म के विषय पर कुछ कहना टेढ़ी खीर है. जम्मू के एक उत्साही युवा सतीश एक विद्रोही ने इस विषय पर एक चर्चा आयोजित की थी जिसमें बहुत-सी बातें उभर कर आई थीं. वैसे आज धर्म नितांत व्यक्तिगत चीज़ है.
राजस्थान के बहुत से मेघवंशी अपने एक पूर्वज बाबा रामदेव में आस्था रखते हैं. गुजरात के मेघवारों ने अपने पूर्वज मातंग ऋषि और ममई देव के बारमतिपंथ को धर्म के रूप में सहेज कर रखा है और उनके अपने मंदिर हैं, पाकिस्तान में भी हैं. प्रसंगवश मातंग शब्द का अर्थ मेघ ही है. मेघवार अपने सांस्कृतिक त्योहारों में सात मेघों की पूजा करते हैं. संभव है वे सात मेघवंशी राजा रहे हों. ममैदेव महेश्वरी मेघवारों के पूज्य हैं जो मातंग देव या मातंग ऋषि के वंशज हैं. ममैदेव का मक़बरा जिस कब्रगाह में है उसे यूनेस्को ने विश्वधरोहर (World Heritage) के रूप में मान्यता दी है. इस प्रकार एक मेघवंशी का निर्वाण स्थल विश्वधरोहर में है.
मेघ कई अन्य धर्मों/पंथों में गए जैसे राधास्वामी, निरंकारी, ब्राह्मणीकल सनातन धर्म, सिखिज़्म, आर्यसमाज, ईसाईयत, विभिन्न गुरुओं की गद्दियाँ, डेरे आदि. सच्चाई यह है कि जिसने भी उन्हें 'मानवता और समानता' का बोर्ड दिखाया वे उसकी ओर गए. लेकिन उनका सामाजिक स्तर वही रहा. धार्मिक दृष्टि से उनकी अलग पहचान और एकता नहीं हो पाई. मेघों ने सामूहिक निर्णय कम ही लिए हैं.
लेकिन इस बात का उल्लेख ज़रूरी है कि आर्यसमाज द्वारा मेघों के शुद्धीकरण के बाद मेघों का आत्मविश्वास जागा, उनकी राजनीतिक महत्वाकाँक्षा बढ़ी और स्थानीय राजनीति में सक्रियता की उनकी इच्छा को बल मिला. वे म्युनिसपैलिटी जैसी संस्थाओं में अपनी नुमाइंदगी की माँग करने लगे. इससे आर्यसमाजी परेशान हुए.
मेघों की नई पीढ़ी कबीर की ओर झुकने लगी है ऐसा दिखता है और बुद्धिज़्म को एक विकल्प के रूप में जानने लगी है. यह भी आगे चल कर मेघों के धार्मिक इतिहास में एक प्रवृत्ति (tendency) के तौर पर पहचाना जाएगा. मेघों में संशयवादी (scepticism) विचारधारा के लोग भी हैं जो ईश्वर-भगवान, मंदिर, धर्मग्रंथों, धार्मिक प्रतीकों आदि पर सवाल उठाते हैं और उनकी आवश्यकता महसूस नहीं करते. मेघों की देरियाँ भी उनके पूजास्थल हैं जो अधिकतर जम्मू में और दो-तीन पंजाब में हैं.
इधर ''मेघऋषि'' का मिथ धर्म और पूजा पद्धति में प्रवेश पाने के लिए आतुर है. मेघऋषि की कोई स्पष्ट तस्वीर तो नहीं है लेकिन कल्पना की जाती है कि एक जटाधारी भगवा कपड़े पहने ऋषि रहा होगा जो पालथी लगा कर जंगल में तपस्या करता था. इसी पौराणिक इमेज के आधार पर गढ़ा, जालंधर में एक मेघ सज्जन सुदागर मल कोमल ने अपने देवी के मंदिर में मेघऋषि की मूर्ति स्थापित की है. राजस्थान में गोपाल डेनवाल ने मेघ भगवान और मेघ ऋषि के मंदिर बनाने का कार्य शुरू किया है. इसके लिए उन्होंने मोहंजो दाड़ो सभ्यता में मिली सिन्धी अज्रुक पहने हुए पुरोहित-नरेश (King Preist) की 2500 ई.पू. की एक प्रतिमा जो पाकिस्तान के नेशनल म्यूज़ियम, कराची, में रखी है उसकी इमेज या छवि का भी प्रयोग किया है. मेघ भगवान की आरतियाँ, चालीसा, स्तुतियाँ तैयार करके CDs बनाई और बाँटी गई हैं.
कमज़ोर आर्थिक-सामाजिक स्थिति की वजह से राजनीति के क्षेत्र में मेघों की सुनवाई लगभग नहीं के बराबर है और सत्ता में भागीदारी बहुत दूर की बात है. एक सकारात्मक बात यह है कि पढ़े-लिखे मेघों ने बड़ी तेज़ी से अपना पुश्तैनी कार्य छोड़ कर अपनी कुशलता कई अन्य कार्यों में दिखाई और उसमें सफल हुए. व्यापार के क्षेत्र में इनकी पहचान बने इसकी प्रतीक्षा है.
मेघों के इतिहास के ये कुछ पृष्ठ ख़ाली पड़े हैं.
1. अलैक्ज़ेंडर कन्निंघम ने अपनी खोज में मेघों की स्थिति को सिकंदर के रास्ते में बताया है. हालाँकि राजा पोरस पर कई जातियाँ अपना अधिकार जताती हैं. तथापि यह देखने की बात है कि उस समय पोरस की सेना में शामिल योद्धा जातियाँ कौन-कौन थीं. भूलना नहीं चाहिए कि उस क्षेत्र में मेघ बहुत अधिक संख्या में थे जो योद्धा थे. कुछ इतिहासकारों ने बताया है कि पोरस ने ही सिकंदर को हराया था.
2. केरन वाले भगता साध की अगुआई में कई हज़ार मेघों ने मांसाहार छोड़ा. यह एक तरह का एकतरफा करार था. इस करार की शर्तों और पृष्ठभूमि को देखने की ज़रूरत है.
3. कुछ मेघों ने विश्वयुद्धों में, पाकिस्तान और चीन के साथ हुए युद्धों में हिस्सा लिया है. वे दुश्मन की सामाओं में घुस कर लड़े हैं. उनके बारे में जानकारी नहीं मिलती.
4. दीनानगर की अनीता भगत ने बताया था कि एक मेघ भगत मास्टर नरपत सिंह, गाँव बफड़ीं, तहसील और ज़िला हमीरपुर (हिमाचल प्रदेश), (जीवन काल - सन् 1914 से 1992 तक) स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा पा चुके हैं. अनीता ने उनके बारे में जानकारी और फोटोग्राफ इकट्ठे करके भेजे हैं. उस वीर को 1972 में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने स्वतंत्रता संग्राम में योगदान के लिए ताम्रपत्र भेंट किया था. गाँव की पंचायत ने उनके सम्मान में स्मृति द्वार बनवाया है. एक ऐसा स्वतंत्रता सेनानी जिसके शरीर पर गोलियों के छह निशान थे. ऐसे लोग शायद और भी मिलें. देखिए. ढूँढिए.
5. मेघवंश के लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का रिकार्ड तैयार करने की भी ज़रूरत है. एडवोकेट हंसराज भगत, भगत दौलत राम जी के बारे में कुछ जानकारी मिली है. यह सूची अधूरी है.
6. ऐसे ही मेघों के राजनेताओं की जानकारी का संकलन अभी तक नहीं हो पाया है.
जो अब तक कहा गया है उसे अंत में आप मेघों के इतिहास की हेडलाइन्स समझ कर संतोष करें.
मेघ इतने दमन के बावजूद बेदम नहीं हुए बल्कि आज वे पहले से अधिक प्रकाशित हैं. अन्य जातियों के साथ मिला कर वे देश की प्रगति में अपना योगदान दे रहे हैं. आने वाले समय में इनकी भूमिका बहुत एक्टिव होगी और स्पेस भी अधिक होगा. आपने पिछले इतिहास को थोड़ा-सा जान लिया है. अब अपने आज को सँवारिए और भविष्य बनाइए जो आपका है.
जय मेघ, जय भारत.
जय भीम
धन्यवाद,
विद् टेक्निकल ईश्वर
गलत जानकारी दे रहे हो मित्र
जवाब देंहटाएंआर्यो का आगमन आपने ईसा से 1500 BC बताया ये गलत है सायद आपने बैदिक काल का समय ही पढ़ लिया
ब्राह्मण भारत में 350 ईपू में आए। बुद्ध के समय भारत में ब्राह्मण नहीं थे। बुद्ध के समय जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था भी नहीं थी, जब ब्राह्मण ही नहीं थे उस समय तो वेद पुराण आदि नहीं थे।
हटाएंऐतिहासिक साक्ष्यों के हिसाब से संस्कृत भाषा पहली सदी में बनायी गयी प्राकृत भाषा का संस्कार करके।
वास्तव में ब्राह्मणों को अनार्य कहा जाता था और भारतीयों को आरिय यानी आर्य कहा जाता था। जो बाहर से आए यानी ब्राह्मण को अनारिय या अनार्य कहा जाता था लेकिन ब्राह्मणों ने खुद आर्य नाम दे दिया।
185 ईपू में पुष्यमित्र शुंग ने भारत में वैदिक संस्कृति की नींव रखी लेकिन फिर भी वैदिक धर्म को मजबूती मिली 600 ई बाद। बौद्ध धर्म ही मुख्य धर्म रहा भारतीयों का 600 ई तक। 700ई तक आते-आते बौद्ध धम्म थोड़ा सा ही रह गया और वैदिक धर्म फैल गया।
ऐतिहासिक साक्ष्यों से साबित हो चुका है कि ब्राह्मण भारत में 350 ईपू में आए। वेद पुराण सब 500 ई के बाद रचे गए। नालन्दा और तक्षशिला बौद्ध विश्वविद्यालय सहित सैकड़ों बौद्ध विश्वविद्यालय नष्ट कर दिए ब्राह्मणों ने।
भारत के असली क्षत्रिय भील मीणा आदिवासी लोग हैं, इनसे राजपूत हमेशा हार जाते थे इसलिए राजपूतों ने कायराना हरकतें करके छल से राज छीना।
ब्राह्मण भारत में लूटमार करने के मकसद से आए थे। एक आदिवासी राजा का ताम्रपत्र मिला है जिसमें राजा ने आम जनता को आदेश दिया है कि ये ब्राह्मण लोग हमारे बाप दादाओं के नाम से फर्जी ताम्रपत्र बनाकर जमीनें हड़प रहे हैं इसलिए अगर कोई ब्राह्मण जमीन पर कब्जा करता है ताम्रपत्र दिखाकर तो तुरंत राजा को सुचित करें।
700ई तक जो 20-25% बौद्ध बचे थे वो ब्राह्मणों के षड्यंत्रों व कर्मकाण्ड नर बलि पशुबलि आदि का पूरजोर विरोध कर रहे थे। ब्राह्मणों ने इन बौद्धों को समाज से बहिष्कृत करवा दिया, सम्पति हड़प ली गयी, उनको पापी दुष्ट नीच करार दे दिया गया। पेट की भूख मिटाने हेतु उनको चमड़े के काम करने पर मजबूर किया गया। यह बौद्ध लोग मरे जानवर का मांस खाने पर विवश हुए जिन्दा रहने के लिए। बाद में उनको चमार कहा गया। ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
बुद्ध के समय भी ब्राह्मण थे
हटाएंNice jay bheem namo buday meghwal shab bikaner
जवाब देंहटाएंSwaroopdesar
Nice
जवाब देंहटाएंआपने गलत बोला है अरे कोई जाति विशेष शब्द नहीं है आर्य का मतलब है सर्वश्रेष्ठ बुद्धिमान आदमी जो भारत में रहते थे
जवाब देंहटाएंब्राह्मणों ने खुद को भारतीय दिखाने के लिए भारत के इतिहास को गलत लिखा। संतों महापुरुषों के बारे में गलत जानकारियां दी।
जवाब देंहटाएंमछीन्द्रनाथ एक बौद्ध भिक्षु थे और उनके शिष्य गोरख नाथ भी एक बौद्ध भिक्षु थे। भदन्त गोरख कहा जाता था। गोरख नाथ जी ने मन्दिर, मस्जीद, पूजा-पाठ, हवन यज्ञ, पशु बलि, नर बलि, तीर्थ स्नान, ब्रह्मा विष्णु महेश आदि का पूरजोर विरोध किया। हिन्दू देवी-देवताओं को नकारा। गोरख नाथ जी के सिर पर टाट रहती थी, बौद्ध भिक्षु की तरह ही रहते थे। गोरख नाथ जी अपनी वाणी में खुद को भदन्त गोरख बोल रहे हैं बार बार। भदन्त बौद्ध भिक्षु को बोला जाता है।
मछीन्द्र, गोरख, कबीर, रैदास, नानक आदि संतो ने ब्राह्मणवाद, वेद पुराण , पूजा पाठ मन्दिर मस्जिद पाखण्ड , तीर्थ स्नान आदि का पूरजोर विरोध किया है और काल्पनिक देवी-देवताओं भगवानों का विरोध किया है। इन सभी संतों का मार्ग बुद्ध का मार्ग है। लेकिन ब्राह्मणों ने गोरख नाथ जी को शिव भक्त बना दिया, शिव का अवतारी बना दिया। एक बौद्ध भिक्षु गोरख नाथ को शिव भक्त बना दिया। कबीर, रैदास का भी ब्राह्ममणीकरण कर दिया। रविदास जी को को कृष्ण भक्त बना दिया, मन्दिर में पुजा करने वाले बता दिया जबकि रविदास जी ने मन्दिर मस्जिद मूर्ति पूजा पाखण्ड का जमकर विरोध किया है। कबीर ने भी इन सबका विरोध किया। ब्राह्मणों ने इन संतों को हिन्दू भगवानों के भक्त बना दिया जबकि इन संतों ने तो ब्राह्मणों के काल्पनिक भगवानों का विरोध किया। इन सभी संतों ने बुद्ध का मार्ग अपनाया यानी अपने शरीर पर ध्यान करके सत्य को अपने ही भीतर देखने का मार्ग अपनाया। इसको निर्गुणी नाम दिया।
इन सभी संतों ने बुधत्व प्राप्त किया। इन सभी संतों ने बार बार वो ही कहा है जो कि बुद्ध ने कहा है कि अपने भीतर जाओ। सत्य को अपने भीतर देखो। बाहर मन्दिरों में कुछ नहीं है। पत्थर की मूर्ति में भगवान नहीं होता है। अपने भीतर जाओ।
मीरा कृष्ण के मन्दिरों में भटकती फिरती थी। कभी मथुरा तो कभी द्वारिका तो कभी वृन्दावन लेकिन भगवान कहीं नहीं मिला। मीरा थक हार के परेशान हो गयी तब एक इंसान ने मीरा को रविदास जी के चरणों में जाने को कहा। मीरा रविदास जी के चरणों में आयी और रविदास जी ने मीरा को ज्ञान दिया। मीरा ने गुरु रविदास के बताए अनुसार ध्यान किया और खुद के ही भीतर सत्य का दर्शन किया, मीरा को बुधत्व प्राप्त हुआ। फिर कभी भी मीरा मन्दिरों में नहीं भटकी।
ब्राह्मणों ने गोरख नाथ के नाम पर हिन्दू देवी-देवताओं के ग्रंथ लिखे, शिव, भैरव, पार्वती , गणेश आदि देवताओं पर किताबें लिखी और लेखक गोरख नाथ जी को बना दिया। कृष्ण भक्ति के कई पद कविताएं लिखे ब्राह्मणों ने लेकिन रचियता नाम मीरा का कर दिया।
पाखण्ड पूजा पाठ टोने-टोटके पर किताबें लिखी ब्राह्मणों ने लेकिन रचियता की जगह गोरख नाथ जी का नाम लिख दिया। बौद्ध संतो का हिन्दूकरण करने के लिए इन संतों को रचियता बताकर ब्राह्मणों ने खुद ही किताबें लिखी हिन्दू देवी-देवताओं पर।
श्रीमान जी मीरा बाई कौन थी और क्या थी तुम लोगो के बरगलाने से सत्य असत्य में शायद ही बदलेगा
हटाएंJati ek hi jo srvouttam h or vo h manushay isse upar bhagan h yah to jati nahi kram tha jo jatiyo me hamne khud banta h ya dhani logo ka kaam hai. Aane wali pidiya phir ek ho jayegi bantna choro jodna sikhao bhai
जवाब देंहटाएंJai Bhim bro
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